1937 की बात है। तब देश में अंग्रेजों की हुकूमत थी। इसी साल ए ललिता की जिंदगी में भूचाल आया था। ललिता के पति दुनिया से चल बसे। ललिता की उम्र उस समय सिर्फ 18 साल थी। उन पर चार महीने की बेटी को पाल-पोसकर बड़ा करने की जिम्मेदारी थी। ऊपर से सामाजिक दबाव भी था जो महिलाओं को चारदीवारों में कैद रहने को मजबूर करता था। ललिता के सामने सिर्फ दो विकल्प थे। समाजिक बंधनों के आगे झुक जाने का या फिर उन्हें तोड़कर कुछ कर गुजरने का। ललिता ने दूसरे विकल्प को चुना और इतिहास रच दिया। उन्होंने उस क्षेत्र में करियर बनाया जिसमें उनसे पहले भारत में किसी महिला ने कदम नहीं रखा था।
सात भाई-बहनों में पांचवें नंबर की थीं
ललिता का जन्म 1919 में तमिलनाडु में एक मिडिल क्लास परिवार में हुआ था। सात भाई-बहनों में वह पांचवें नंबर की थीं। उनके भाई इंजीनियर बन चुके थे। बहनों की पढ़ाई बेसिक एजुकेशन तक सीमित थी। 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी। उनके पिता को ललिता की पढ़ाई पर बड़ा यकीन था। लिहाजा, उन्होंने सुनिश्चित किया था कि वह 10वीं कक्षा तक जरूर पढ़ लें।
Success Story: पिता ने घूम-घूमकर कभी साइकल से दूध पहुंचाया, बेटी पहली ही कोशिश में IIM अहमदाबाद पहुंची
पति के निधन के बाद ललिता की जिंदगी जहन्नुम बन गई। सास ताने देने लगीं। उनकी सास ने 16वां बच्चा गंवाया था। इसकी सारी खुन्नस वह ललिता पर निकालतीं। हालांकि, ललिता ने सामाजिक दबाव में नहीं आने की ठान ली थी। उन्होंने आगे और पढ़ने का फैसला किया। यह भी तय किया कि वह एक सम्मानजनक नौकरी करेंगी।
शुरू से इंजीनियर बनने की थी ललक
ललिता कभी डॉक्टर नहीं बनाना चाहती थीं। उन्हें पता था कि इस प्रोफेशन में 24 घंटे 7 दिन लगे रहने की जरूरत पड़ती है। लिहाजा, उन्होंने पिता पप्पू सुब्बा राव और अपने भाइयों की राह पर चलकर इंजीनियर बनने का फैसला किया। राव मद्रास यूनिवर्सिटी से संबद्ध कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, गिंडी (सीईजी) में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे। उन्होंने कॉलेज के प्रिंसिपल केसी चाको और पब्लिक इंस्ट्रक्शन के डायरेक्टर आरएम स्तथम से बात की। दोनों अधिकारियों का सीईजी के इतिहास में पहली महिला को दाखिला देने में सहयोगात्मक रवैया था।
कॉलेज में सैकड़ों लड़कों के बीच ललिता अकेली लड़की थीं। लड़के भी ललिता की बहुत मदद करते थे। लेकिन, कुछ महीने बाद उन्हें अकेलापन महसूस होने लगा। इस बारे में उन्होंने अपने पिता को भी बताया। राव ने इसे एक मौके के तौर पर देखा और दूसरी महिलाओं के लिए भी कॉलेज में दाखिले के लिए दरवाजे खोले। इसी के बाद लीलम्मा जॉर्ज और पीके थ्रेसिया ने उन्हें ज्वाइन किया। लेकिन, वह सिविल इंजीनियरिंग कोर्स में थीं।

ललिता ने थोड़े समय के लिए शिमला में सेंट्रल स्टैंडर्ड ऑर्गनाइजेशन में काम किया। फिर चेन्नई में पिता के साथ ही काम किया। ललिता ने जेलेक्ट्रोमोनियम, इलेक्ट्रिकल म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट, इलेक्ट्रिक फ्लेम प्रोड्यूसर और स्मोकलेस अवन इंवेट करने में पिता की सहायता की। कुछ समय बाद ही वह पिता की वर्कशॉप में आ गईं। बाद में कोलकाता में एसोसिएटेड इलेक्ट्रिकल इंडस्ट्रीज में नौकरी की।
पद्मश्री से किया गया सम्मानित
अपने 20 साल के करियर में ललिता ने इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया। उन्होंने कई संगठनों के साथ काम किया। इनमें सेंट्रल स्टैंडर्ड ऑर्गनाइजेशन, एसोसिएटेड इलेक्ट्रिक इंडस्ट्रीज और इंडियन स्टैंडर्ड इंस्टीट्यूशन शामिल थे। वह श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश में इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स पर संयुक्त राष्ट्र की कंसल्टेंट भी रहीं। महिलाओं के अधिकारों को लेकर भी वह बहुत ज्यादा मुखर रहीं। उन्हें लगता था कि शिक्षा और रोजगार के अवसरों पर सभी का बराबरी का हक होना चाहिए। अपने विचारों को बढ़ावा देने के लिए वह दिन-रात काम करने लगीं। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए उन्हें 1969 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1964 में उन्होंने न्यूयॉर्क वर्ल्ड फेयर में पहले महिला इंजीनियर्स और वैज्ञानिक कॉन्फ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। 1979 में 60 साल की उम्र में उन्होंने अंतिम सांस ली।